(नागपत्री एक रहस्य-23)
एक सच्चा प्राप्त गुरु वह होता है, जिसने आत्मनियंत्रण की उपलब्धि करने में सर्वव्यापी ब्रह्म के साथ एकरूपता प्राप्त कर ली है, ऐसा व्यक्ति विशेष रूप से किसी साधक को उसकी पूर्णता की ओर आन्तरिक यात्रा में सहायता प्रदान करने में समर्थ होता है।
व्यक्ति को अपनी दिव्यता को पुनः पाने के लिए एक ऐसा ही गुरू चाहिए, जो निष्ठापूर्वक गुरू का अनुसरण करता है, वह उसके समान हो जाता है, क्योंकि गुरु अपने शिष्य को अपने ही स्तर तक उठने में सहायता करता है।
गुरु शिष्य सम्बन्ध मित्रता की उच्चतम अभिव्यक्ति है, क्योंकि यह नि:शर्त दिव्य प्रेम और बुद्धिमता पर आधारित होता है, यह सभी सम्बन्धों में सबसे उन्नत एवं पवित्र होता है, जब हम ईश्वर को यह विश्वास दिला देते हैं, कि हम केवल उनके लिए ललायित हैं, तो वह हमारे पास हमारे गुरु को भेजते हैं, जो हमको सिखाते है कि ईश्वर को कैसे जाना जाए।
केवल वही जो ईश्वर को जानते है, दूसरों को भी उसे जानना सिखा सकता है, ईश्वर रहस्यमय तरीके से नहीं बल्कि उन्नत आत्माओं द्वारा सिखाते हैं, ईश्वर अदृश्य हैं किन्तु जो उनके साथ निरंतर संपर्क में है, उनकी बुद्धिमत्ता और आध्यात्मिक अनुभवों के द्वारा वह दृष्टिगोचर होते हैं, किसी के जीवन में बहुत से शिक्षक हो सकते हैं, पर गुरु केवल एक ही होता है, गुरु शिष्य सम्बन्ध में एक दैवीय नियम परिपूर्ण होता है।
गुरुदेव समस्त शास्त्रों और वेदों का ज्ञान देने के पश्चात आखिर और क्या शेष बचना होगा??क्या कुछ ऐसा भी कुछ है, जो शेष रह गया, और यदि हां तो कैसे??
क्योंकि जैसा मैंने सुन रखा है, और जैसा कि आपने बताया संपूर्ण विद्याएं, मंत्र, अभिमंत्र, कारक और कारण के परिणामों के साथ उपस्थित करने वाले सभी मंत्र इन्हीं में उपस्थित है।
ऐसा आपने ही बताया था, तब फिर भला ऐसा क्या शेष बचता है जो अभी तक अध्ययन सामग्री का हिस्सा ना बना??
और यदि ऐसा कुछ है तो कृपा कर बताएं कि मैं उनके माध्यम का लाभ कैसे उठा सकूं??
सर्व समर्थ मुझे संसार को देखने की दृष्टि देने वाले गुरु आखिर क्या कारण है, जो आप इतना संकोच और चिंता में ऐसा कह रहे हैं कृपया स्पष्ट बताएं, क्योंकि यदि गुरु असंभव में हो, तो शिष्य पूर्णत्व को कैसे प्राप्त कर सकता है??
यदि मेरी ओर से कोई जतन शेष बचा हो, तो कृपया वह भी बता दे, क्योंकि अब तो मेरा मन भी उन गुप्त रहस्यों को जानने के लिए व्याकुल हो रहा है।
हे गुरुवर संसार में व्याप्त सुखों को प्राप्त करने की इच्छा को बलपूर्वक दबाया जा सकता है, इंद्रियों को वश में किया जा सकता है, लेकिन ज्ञान को प्राप्त करने की लालसा और शक्तियों का सृजन उनकी प्राप्ति के लिए प्रयत्न करना कोई भी नहीं छोड़ सकता, चाहे फिर वह कोई भी क्यों ना हो?
मनुष्य ,देव ,दानव, यक्ष ,गंधर्व, नाग, भूत, प्रेत, पिचास और यहां तक कि ऋषि मुनि भी अपनी सामर्थ्य और शक्ति के अनुसार उपयोगी ज्ञान को प्राप्त करने के लिए हमेशा ही ललायित रहते हैं, कृपया मुझ पर कृपा करें और मुझे बताएं कि क्या करने से मुझे उस ज्ञान की प्राप्ति हो??
चित्र सेन जी जिन्होंने अभी अभी आचार्य पद प्राप्त किया था, और चंद कुछ ही दिनों में उन्हें ऐसा लगने लगा था, कि उनका ज्ञान पर्याप्त है, लेकिन जब उनके गुरु ने उन्हें अपनी आगमन की सूचना दी तो वे भारी प्रसन्न हुए, और यह सोचने लगे कि अपने शिष्य को आचार्य पद पर देख गुरु को प्रसन्नता होगी।
यह सोच उन्होंने अपने गुरु की इच्छा अनुसार घाट, मंदिर, सरोवर यहां तक कि रास्तों को भी गुरु की इच्छा को ध्यान में रखकर अपने हाथों से सजाया था, क्योंकि वे जानते थे कि मानव शरीर धारी उन महान शक्तियों में से एक है, जिनका जन्म सामान्य नहीं माना जा सकता ।
प्रभावी शक्तियां के धारक होने के साथ ही साथ एक सामान्य से दिखने वाले उनके गुरुजी जो बिना कोई विशेष वेशभूषा और ना ही कोई तिलक यज्ञ अनुष्ठान करने वाले थे।
वे तो सिर्फ अपने आप में खोए रहने वाले और प्रभु का स्मरण करने वाले उन योगियों में से एक थे, जिन्हें संपूर्ण ज्ञान जैसे उनकी भक्ति से प्रसन्न होकर उन्हें प्रसाद के रूप में बिना अध्ययन के ही मिल गया।
आज तक उन्हें किसी ने भी किसी शास्त्र या वेद को उठाकर पढ़ते नहीं देखा, लेकिन तब भी एक-एक पंक्ति और प्रसंग उन्हें कंठस्थ याद था।
किसी भी श्लोक के पुनरावृति के साथ कभी उन्होंने उपयोग नहीं किया, और उनकी शिव भक्ति तो जैसे सामान्य जन की सोच से भी परे थी, खुद चित्र सेन जी महाराज जब पहली बार उनके पास विद्या अध्ययन के लिए पहुंचे, तब देखा कि एक सामान्य सा दिखने वाला मानव जिसके समिति जटाधारी छोटे छोटे बालक जो दिखने में छोटे लेकिन गंभीर जान पड़ते थे।
गुरु को प्रणाम कर विद्या अर्जन में लगे रहे, जैसे ही चित्रसेन ने आश्रम में प्रवेश किया ,अचानक जैसे फूल और पानी की बरसात उनके ऊपर होने लगी, उन्होंने अपने पिता से सुन रखा था कि जिस गुरु के पास उन्हें भेजा जा रहा है, वह कोई सामान्य नहीं और श्रेष्ठ गुरुओं को इतनी आसानी से प्राप्त करना भी संभव नहीं है।
इसलिए वे द्वार पर प्रतीक्षा में तब तक खड़े रहे ,जब तक पूरी तरह निढाल होकर गिर ना पड़े, आंखें खोलने पर देखा ऋषि कुमार उनकी सेवा में लगे थे, जिसमें से बड़े भाई ने जब उनके माथे पर हाथ घुमाया तो ऐसा लगा, जैसे एक संपूर्ण सृष्टि पर बिछा हुआ जाल अचानक फट गया, घोर अंधकार में चारों ओर प्रकाश ही प्रकाश नजर आने लगा,
आहा..... सुखद अनुभव, जिनके शिष्यों में इतनी सामर्थ्य है, कि वे स्पर्श मात्र से मन के अंधेरे को दूर कर दे, तब तो गुरु का क्या ही कहना ।
वे उठ बैठे, और ऋषि कुमारों को नमस्कार कर अपना परिचय देने को तैयार हुए ही थे , कि अचानक पीछे से आवाज आई, बेटा चित्रसेन ऐसा कुछ विशेष नहीं, जिसे तुम बता सकते हो, क्योंकि मेरे शिष्यों से कुछ भी छुपा नहीं रहता, वे इस उम्र में ही शिवकृपा आत्मज्ञानी हो चुके हो, और तुम्हारा संपूर्ण अतीत यहां तक कि पूर्ण जन्म तक देखने में यह तीनों ही समर्थ है।
चित्रसेन लज्जा के मारे कुछ कह ना सके, क्योंकि उन्हें तो आज तक अपने आचार्य पुत्र होने पर बड़ा गर्व था, लेकिन यहां पर आते ही सबसे पहले उनके जीवन का अहंकार खंडित हो गया।
क्रमशः.....